माँ






     *माँ तुम बहुत याद आती हों.*



जिंदगी के उस मोड़ पर,

जहाँ मैं खुद को अकेला पाता हूँ.

तनहाईयों को अपने आगोश में समेटे हुए,

सन्नाटों से घिर सा जाता हूँ.

बेचैनी के इस आलम में,

हौले से आ कर

मुझे लोरिंयाँ सुनाती हों.



माँ तुम बहुत याद आती हों.



तुम्हारे आँचल में पला बचपन

हजारों ख्वाहिशों तले ढला बचपन

दिन-प्रतिदिन पनपती जरूरतों के बीच

मर सा गया है.

रेत पार खड़ा हसरतों का ताज महल

वक्त की ठोकर खा कर,

बिखर सा गया है.



जिंदगी की दहलीज पर

घुटने टेक चुके सपनो को,

उंगली पकड़कर चलना सिखाती हों.



माँ तुम बहुत याद आती हों.



दिल की गहराइयों से उठता सैलाब

सम्पूर्ण जगत को

निगलना चाहता है.

क्रांति का दावानल ,मन की गहराइयों में

पनाह पा कर पलना चाहता है.

रंग-रंग में बहता तुम्हारा यह लहू,

अपनी जिम्मेदारियों से

डरना नहीं जानता.

चुपचाप सब सहन कर

ख़ामोशी की मौत मरना नहीं जानता.



असीम वेदना से कराहते जीवन को,

वक्त के सांचे में

ढलना सिखाती हों.



माँ तुम बहुत याद आती हों.



पल-पल बदलते वक्त को निरखती

बूढी काकी की ऑंखें

कहानियों के नाम पर गीली होने लगती हैं.

हर बसंत पर

औराई में कूकने वाली कोयल

बसंत के नाम से लाल पीली होने लगती है.

हठ्खेलियों को तरसता जीवन

मन को विदीर्ण करता है.

फुटपाथों पर पलता जीवन

उम्मीदों को क्षीण करता है.



संघर्षों के आगोश में कैद

जिंदगी से

लड़ना सिखाती हों.



माँ तुम बहुत याद आती हों.



तुम्हारे दिए संश्कारों की चिता

धू-धू कर रोज जलती है.

ममता के तुम्हारे पलने में

आधुनिकता पलती है.

मां मुझे तुम्हारे ख्वाबों में

इस जिंदगी की रवानी को ढूढ़ना है
.
बचपन और बुढ़ापे के बीच खो चुकी

जवानी को ढूढ़ना है.



"गगन" के आस्था के फूलों को

उसके आराध्य पर

चढ़ना सिखाती हों.



माँ तुम बहुत याद आती हों.



जय सिंह "गगन"

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