माँ और बचपन




 कविता  



माँ सिर्फ़ पूजा है.


माँ सिर्फ़ वंदन है.

माँ तो हर माथे का,

रोली है चंदन है.


दुआ ले के घर से,

निकलता था बचपन.

हरेक मुस्किलों से,

संभलता था बचपन.


परिओं के किस्से,

नबाबों के किस्से.

वो बागों के किस्से,

गुलाबों के किस्से

.
क़िस्सों से ही तो

बहलता था बचपन.

उंगलियाँ पकड़कर,

टहलता था बचपन.


सरलता का आँचल,

सहजता का आँचल.

पल-पल बरसती वो,

ममता का आँचल.


इस आँचल तले तो 

सुबकता था बचपन

हौले से जा कर,

दूबकता था बचपन.


वो जलती अंगीठी,

वो रोटी वो चूल्हा

वो माथे का चुंबन,

वो गोदी का झूला.


पल-पल इसे ही

मचलता था बचपन

तभी जा के ज़िद से,

पिघलता था बचपन.


सुंदर सी माँ वो,

न्यारी सी माँ वो.

हम कितने बुरे हों,

प्यारी सी माँ वो.


खुशबू से उसकी,

महकता था बचपन.

उसे देखकर ही 

चहकता था बचपन.

जय सिंह"गगन"

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