गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कुर्सी


रोजी-रोटी घर की चिंता खबरें आने-जाने की.
यह कुर्सी ही राजदार है मेरे हर अफ़साने की.

कोशिश




मुक्त कर दिया सूरज को, कल उसको भी घर जाना है.
अगली कोशिश आसमान से, चाँद उठा कर लाना है.
"गगन"

मुझे तुम याद कर लेना.


न हो मेले में जब मस्ती, मुझे तुम याद कर लेना.
बिखरने जब लगे हस्ती, मुझे तुम याद कर लेना.
तुम्हारा शौक इस दरिया के अक्सर पार जाना है.
भंवर जब रोक ले कश्ती, मुझे तुम याद कर लेना.
“गगन”

हासिल.

ज़रा नादान था ये दिल, मगर समझा लिया हमने.
हुआ कुछ भी नहीं हासिल मगर सब पा लिया हमने.
लिखी थी नज्म,  जो हमने, कभी तेरी जुदाई में.
जो तेरी याद आयी तो, उसे  ही गा लिया हमने.

गगन

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

बचपन.


एक पोटली मुझे थमा कर उस बचपन के किस्से की.
जो भी चहिये सब ले जाना खुशी हमारे हिस्से की.

फ़िक्र तो होती है.


फ़िक्र तो होती है.
गलियों में कोहराम फ़िक्र तो होती है.
शहर में क़त्ल-ए-आम फ़िक्र तो होती है.
आसमान ने निगला कई परिंदों को,
गिद्ध हुए बदनाम फ़िक्र तो होती है.
सब करते हैं चर्चा रोजी-रोटी की.
कोई ना दे काम फ़िक्र तो होती है.
सच की बोली लगे झूंठ की चौखट पर,
बिकता जैसे आम फ़िक्र तो होती है.
घर-घर होती बात किसी समझौते की,
बाहर हो संग्राम फ़िक्र तो होती है.
टुकड़े-टुकड़े ख्वाब बिखर कर आँखों से,
बहते हैं अविराम फ़िक्र तो होती है.
भूख पसरकर सोती झोपड़-पट्टी में,
महलों में आराम फ़िक्र तो होती है.
यह कैसा बटवारा जिसने बाँट दिया,
अल्ला,इशू, राम फ़िक्र तो होती है.
जय सिंह”गगन”

गुरुवार, 13 मार्च 2014

रमुआ अउर टिफिन


बघेली कविता.
रमुआ अउर टिफिन 

एक दिन मास्टर साहब
दुपहर कइ भुखाने
कक्षा म सकाने
न केहू से पूछिनि न बोलिनि 
रमुआ क बस्ता खोलिनि 
अउ ओसे टिफिन मारि दिहिनि 
जउन बपुरा लाबा तइ 
सगला झारि दिहिनि 
सेधान चाटत रहे तबइ 
रमुआ आइ ग 
दिखिसि त चउआइ ग 
मास्टर साहब सोचिनि 
जो एक हडकाउब 
कुछु बताउब
त सार इया रोई 
गाँउ मोहल्ला माँ सगळे बोई.
एह से ओका बलाइनि 
सम्झाइनि 
कहिनी हम जानित हइ 
तइ सब जानत हसु 
हमका बहुत मानत हसु 
पइ इ बताउ हमार नाउ लउबे त न 
घरे माँ महतारी पूछी त बतउबे त न 
रमुआ कहिसि- मास्टर साहब 
अपना सेतिऊ चउआन हमन 
बिना मतलब क काहे परेशान हमन
हमका भुखान देखी त पूछी जरूर 
इ हम मानित हइ 
हमार महतारी ओका हम 
खुब जानित हइ 
कही के टिफिन नहीं खाए 
केउ चोराइ लिहिसि 
पइ आखिर हमहूँ 
अपनइ क चेला आहेंन 
कही देब नहीं अम्मा 
कक्षा म एक ठे सार कुकुर घुसा रहा 
उहइ खाइ लिहिसि .

जय सिंह”गगन”

बुधवार, 12 मार्च 2014

एक अरदाश.


तेरे जुल्फों की खुशबू से मदहोशी सी छा जाती है.
हो सके अगर तो ख़त मेरे सिरहाने रख कर मत सोना.
जय सिंह"गगन"

एतराज


मैं क्या लिक्खूं इस समाज के घटिया रीति-रिवाजों पर.
जब मुझको ही एतराज है खुद मेरे अलफाजों पर.

हिफाजत


केवल तेरी यादें लेकर शहर छोड़ कर आया हूँ.

दिल के टुकड़े वहीं पड़े हैं रखना उन्हें हिफाजत से.

गुजारिश.


मेरा दिल यूँ तडफता है बुरे हालात रोते हैं.
चले आओ अकेले हैं मेरे जज्बात रोते हैं.
ज़माने ने लगा रक्खी है जाने बंदिशें कितनी,
बिखरते ख्वाब आँखों में यूँ सारी रात रोते हैं.

आजमा लेना.


खुशी आजमा लेना गम आजमा लेना.
जितने भी चाहो सितम आजमा लेना.
ये दिल कर दिया है तुम्हारे हवाले,
इसे जब भी चाहो सनम आजमा लेना.

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

काहे हबा लुकान हो काकू.

बघेली कविता
काहे हबा लुकान हो काकू.
काल्हि हबइ मतदान हो काकू.
दारू,मुर्गा छानि परे हँ,
मतदाता सब नाली माँ,
बाप क डारे दारू देखि कइ,
लरिका हइ पछीआन हो काकू.
घरे घरे म जाइ के देखा,
तुहूँ बोट खुब माँगे हइ,
जीती हारी केउ पइ अलहन,
तोहरइ हबइ खरान हो काकू.
गाजा-बाजा हल्ला-गुल्ला,
सुनि-सुनि कइ अगड़ाति रही,
बंद होइ गएँ चोंगा जबसे,
भइसिउ नहीं पेन्हानि हो काकू.
कहत रहें के बड़ा बोट हइ,
पुनि काहीं सरकार बनी,
भइने भएँ बेलाला ससुरे,
मामा हमा लुकान हो काकू.
हाथ जोरि कइ खुब घूमें तइ,
सगले गली मोहल्ला माँ,
रमुआ करे हइ हल्ला सगले,
हाथइ हइ गरुआन हो काकू.
उज्ज़र बज्ज़र नेता घुसुरें,
चमरउटी अहिराने म,
दिन भर हमका हेरत होइग,
रमुअउ कहउ देखान हो काकू.
आजु जउन कुछु पाबा छाना,
कल्हि क डारा चूल्हा म.
पाँच साल तक फेरि इ तोहसे,
बस रहिहीं टेडुआन हो काकू.
चला चली हम बटन दबाई,
कुछु अइसन सरकार चुनी.
छटइ इआ अँधियार "गगन"क,
सुंदर होइ बिहान हो काकू.

जय सिंह"गगन"

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

मदहोशी .

तेरे जुल्फों की खुशबू से मदहोशी सी छा जाती है.
हो सके अगर तो ख़त मेरे सिरहाने रख कर मत सोना.
जय सिंह"गगन"