गुरुवार, 21 मार्च 2013

बघेली कविता.




बघेली कविता.

कक्षा मा मास्टर साहब,
आसउ के साल,
बोलिनि एक ठे सवाल-
कहिनि लरिकउ आपन आपन
दिमाग़ दउड़ाबा,
चला एँह प्रश्न क उत्तर बताबा.
मानिले रमुआ के बाप क,
सउ रूपिया हम दीन्हेंन,
करबाबइ क दवाई,
त आठ रूपिया सैकड़ा के दर से,
उ साल भरे मा,
हमका कतना लउटाई?
सवाल सुनतइ तउआइ कइ,
भ रमुआ खड़ा.
मास्टर साहब कुछू नहीं,
झट्टइ बोलि पड़ा.
मास्टर साहब सन्न रहिगें,
लाल होइगें,
कुर्सी पा गिरें निढाल होइगें.
कहिनि- अरे मूरख,
साल भर तइ एहीं कक्षा क,
सीढ़ी उतरे चढ़े हइ.
फेरउ अतने दिन मा,
तइ इहइ पढ़े हइ.
अरे गदहा हम जउन कहिथे,
नोट कइ लेहे,
एँह पढ़ाई के माथे 
पास होइ जये त कहे.
इ सुनि कइ रमुआ बोला-
मास्टर साहब,
हमार उत्तर ग़लत हइ,
इ हम मानेन.
पइ अपना हमरे बाप क,
बिल्कुल नहीं जानेंन.
देखि लेब, अपनउ एँही हमन,
हमहूँ एँही रहब.
ब्याज त ब्याज,
मूर पाइ जाब त कहब.

जय सिंह"गगन"

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