गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अंदाज़-ए-बयां.




न तो वो शख्स बदला है, न उसका प्यार बदला है.
न वो तस्वीर बदली है, न वो रुखसार बदला है,
बदलना वक्त के माफिक, तकाजा है जमाने का,
तभी तो यूँ मुहब्बत में, ज़रा इजहार बदला है.

जय सिंह "गगन"

बुधवार, 28 नवंबर 2012

विकास देखिये.



वर्षों से चिपकी आँतों में, पलता यह उपवास देखिये.
बच्चों-बूढों की आँखों से, बहता हुआ विकास देखिये.

आज नहीं तो गम कैसा, कल सभी पेट भर खायेंगे,
भूखे चेहरों को समझाता, चेहरा एक उदास देखिये.

सरकारी चौखट पर जब से, सूरज पहरेदार हुआ,
काला स्याह अन्धेरा पसरा, बस्ती में बिंदास देखिये.

वादे टूटे , चाहत झुलसी , हर सपना काफूर हुआ,
थोड़ी सी उम्मीदों का यूँ, कैसे हुआ विनाश देखिये.

सत्ता के गलियारे में है, महगाई की मार कहाँ,
सारे शौक नबाबी करते, हम सब का उपहास देखिये.

बदबू दार नालियाँ , सड़कें गड्ढों में तब्दील हुयी,
गावों के बदले जाने का, ऐसा हुआ प्रयास देखिये.

संसद की मर्यादा लूटी “गगन” कई घोटालों ने,
शर्मसार है जनता सारी, हिन्दुस्तान निराश देखिये.

जय सिंह "गगन"

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

पावस में.



खिलने को आतुर रहता था जो,काली घनी अमावास में.
क्यूँ खोया-खोया गुमसुम सा है,वह चाँद हमारा पावस में.

"गगन"

शनिवार, 24 नवंबर 2012

क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?



बेबसी घर-घर बसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?
रूह में खंजर धंसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

हर शहर में रावणों की ताज पोशी देखकर,
राम पर लंका हँसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

फिर परीक्षित हो फना यूँ  मित्रता के श्राप से,
फिर कोई तक्षक डसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

देख कर बेजान पुतला कल अगर ध्रितराष्ट्र के,
दंभ बस बाजू कसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

लूट ले सूरज न कोई फिर किसी की आरजू,
छद्म बस कुंती फंसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

जय सिंह गगन

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

वजूद.



विता 

मत झांको,
बीते हुए कल के झरोंखों से,
वो खौफनाक हादसे ,
तुम्हें झकझोर देंगे.
वक्त के साथ धुंधले हों चुके,
यातनाओं के अक्श,
वर्षों से तिल-तिल बढ़ते,
मनोबल को तोड़ देंगे.
जहन में पैदा होती ,
महत्वाकांक्षायों को पनपने दो,
कुंठाओं से ग्रसित ,
जिंदगी की असीम रातों को,
सुन्दर और हसीन सपने दो.
समाज की दकियानूशी बंदिशें ,
तुम्हारी कामयाबी पर ,
ग्रहण लगा रही हैं.
सफलता तुम्हारे पास हों कर भी ,
तुम्हें छू नहीं पा रही है.
घूँघट के अन्दर कैद तुम्हारी शक्ति को,
आज का परिवेश
सबला के रूप में पहचानने से,
इनकार कर रहा है.
तुम्हारे साथ चाँद पर
कदम रखने से डर रहा है.
इसलिए समय का लोहा गर्म है,
हंथौडा मारो,
समाज को वक्त के आइने में उतारो.
याद रहे,
वक्त की ठोकरों से सूख चुकी ,
पेंड की हर टहनी को,
तुम्हें पतवार बनाना है.
अबला के रूप में कदम कदम पर,
रौंदी गई मिटटी को,
चमक दमक एवं कांति से परिपूर्ण ,
मीनार बनाना है.
जिसका अप्रतीम सौन्दर्य ,
सारी कायनात को भा जाए.
जिसकी चोटी पर खड़े हों कर,
यदि तुम बांहें फैलाओ तो
सारा आसमान उसमें समां जाए.
"जय सिंह "गगन"