बुधवार, 5 सितंबर 2012

ग़ज़ल.





वर्षों से एक बूँद को प्यासी जमीन है.
लोंगो को इन घटाओं पर फिर भी यकीन है.

यह दौर मुहब्बत का ज़रा तेज है मगर,
ठहरा हुआ ही अक्सर लगता हसीन है.

दरिया को सताता है समंदर का खौफ क्यूँ,
है मामला गहरा मगर एकदम जहीन है.

उसकी मदद को कल से कई हाँथ बढ़े हैं.
कहते हैं उस गरीब की बेटी हसीन है.

उधडे जो घर के रिश्ते कैसे सिले कोई,
फासला दिखता मगर मसला महीन है.

दर्द-ए-जिगर भी मेरे कुछ यूँ बयां हुए,
उनको लगा कि ग़ज़ल ये ताजा तरीन है.

जय सिंह"गगन"

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