सोमवार, 24 सितंबर 2012

शायद चाँद चुराने की.


ग़ज़ल
आसमान को पड़ी जरूरत, तारों को समझाने की.
सबने मिलकर कोशिश की थी, शायद चाँद चुराने की.
भरी दोपहर स्याह हो गयी, सूरज की रुशवाई से,
दिन को आखिर पड़ी जरूरत, शमां तुझे जलाने की.
यह कैसी वीरानी पसरी , मधुवन में, औराई में ,
किसने की है जुर्रत आखिर, कोयल तुझे रुलाने की.
गुलशन को है राज पता यह, फूलों की खामोशी का,
उसकी ही शाजिश थी शायद, भौरों को बहकाने की,
फिर से यह इल्जाम लगा है, बस्ती तेरी गरीबी पर,
उसने फिर से कोशिश की है, ख़्वाबों को दफनाने की.
रातों को यादें मिलाती है, अक्सर उनकी यादों से,
तन्हां घर में खुली छूट है, सब के आने-जाने की.

गगन

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