शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

ग़ज़ल.



ग़ज़ल

चाहे जो हो सजा मुकर्रर, मुझ पर लगी दफाओं का.
हाँ मुझसे ही कत्ल हुआ है, खुद मेरी इच्छाओं का.

शुबह हुई बदनाम बेचारी, नज़र मिला अंधियारे से,
कैसा सिला मिला है तुमको, सूरज तेरी वफाओं का.

बिजली चमकी,बादल गरजे,बिन बरसे ही फना हुए,
कब तक करे भरोसा कोई, सावन तेरी घटाओं का.

पायल, बिंदिया, चूड़ी, कंगन, शहरों में राबूद मिले,
शर्म -ओ- हया पूंछती फिरती पता हमारे गावों का.

चंद दिनों की मेहमान है, खुशबू यहाँ फिजाओं में,
भाता है, याराना इसको, इन अल मस्त हवाओं का.

वो करता है रोज सामना, हर मुश्किल हालातों का,
केवल एक सहारा उसको, माँ से मिली दुआओं का.

जय सिंहगगन

सज़ा.



चाहे जो हो सजा मुकर्रर मुझ पर लगी दफाओं का.
हाँ मुझसे ही कत्ल हुआ है खुद मेरी इच्छाओं का.

यह दुनिया है गम का सागर.



कविता

सुख दुख जीवन के दो पहलू मैने तो हर हाल जिया है.

यह दुनिया है गम का सागर जिसको हमने रोज पिया है.

बचपन की दहलीज चढ़ी तो

महगाई की मार पड़ी

और जवानी के आँगन में

मुश्किल थी हर बार खड़ी.

टूटे सपने बिखरी यादें सबको अंगीकार किया है.

यह दुनिया है गम का सागर जिसको हमने रोज पिया है.

जीवन का हर मोड़ अनोखा,

कितने ख्वाब अधूरे छूटे

कभी-कभी तो लगा है ऐसे,

जैसे अब यह सांस न टूटे.

नई शुबह की आशाओं ने मुझको आकर थाम लिया है.

यह दुनिया है गम का सागर जिसको हमने रोज पिया है.

क्यूँ सोचूँ बेचैन न कर दे,

यादों भरा झरोखा मेरा.

दूर कहीं खुशियों से होगा

कल फिर मिलन अनोखा मेरा.

लम्हों की पैबंद लगा कर दामन सौ-सौ बार सिया है.

यह दुनिया है गम का सागर जिसको हमने रोज पिया है.

अंधकार से क्या घबराना,

शायद यह दो चार पहर हो.

दिब्य पुंज है साथ चल रहा.

ना जाने कब कहाँ शहर हो.

उम्मीदों ने साथ "गगन" का जाने कितनी बार दिया है.

यह दुनिया है गम का सागर जिसको हमने रोज पिया है.

जय सिंह "गगन"

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

ग़ज़ल.



ग़ज़ल


कल से मेरे कदम डगमगाने लगे.

वो मुझे देख कर मुस्कुराने लगे. 


खुशबू ऐसे फिजाओं में बिखरी लगा.


गेसुओं को वो अपनी सुखाने लगे.

बस अचानक ही नज़रों से नज़रे मिली.

हम समंदर में गोते लगाने लगे.

उनकी छत की तरफ मेरी खिड़की खुली.

चिलमनों में वो खुद को छुपाने लगे.

दर्द सारे "गगन" के ग़ज़ल बन गये.

जबसे महफ़िल वो मेरी सजाने लगे.



जय सिंह"गगन"

कैसा लगेगा.



 ग़ज़ल
  कैसा लगेगा

मैं पहले तुम्हें याद करूँ कैसा लगेगा.
फिर प्यार उसके बाद करूँ कैसा लगेगा.

जाति,धर्म,भाषा, मज़हब के नाम पर,
मैं कोई गर फ़साद करूँ कैसा लगेगा.

रिश्तों के बंधनों सभी तोड़ कर अगर,
मैं खुद को आज़ाद करूँ कैसा लगेगा.

चढ़ते ही मुरझा गया मेरी मज़ार पर.
उस गुल की फरियाद करूँ कैसा लगेगा.

अंधेरों मे मेरे साथ जो दर तक तेरे चले,
रस्ता कोई एजाद करूँ कैसा लगेगा.

हर सांस पर लिखा है तेरा नाम"गगन"की,
यह बात वाहियाद करूँ कैसा लगेगा.

                   जय सिंह "गगन"