दिल का हर इक कोना मेरा,
यादों भरा बिछोना तेरा,
तुम हो दिलकश जानशीन हो ,
यत्र-तत्र-सवर्त्र बसी हो,
बहुत दिनों के बाद सुहानी पवन बही पुरवाई शायद.
याद तुम्हारी आई शायद.
तुम हो पास गाँव का आलम,
मुझको ब्रिन्दावन लगता है.
तुम जो दूर हुई तो गुलसन
उजड़ा हुआ चमन लगता है.
एक झलक पाने को निष् दिन,
जाने कितनी तरसी ऑंखें.
जब यादों का मौसम आया,
बिन सावन के बरसी आँखें.
जाने क्योँ हर पल लगता है,तुमने ली अंगड़ाई शायद.
याद तुम्हारी आई सायद.
शाम ढले मन के मंदिर की,
बस दहलीज उतारते सपने.
झूठी मुझे दिलाशा देते,
सजते और सँवरते सपने.
सहर हुई हर दिन के जैसे,
अरमां मेरे छले जाते है.
वही मधुर सपने फिर मुझको,
तन्हां छोड़ चले जाते हैं.
क्षण भर का था मिलन हमारा,फिर से मिली जुदाई शायद.
याद तुम्हारी आई शायद.
मेरे दिल के केनवास पर,
रंग प्यार का मत भरना.
मुझको यादों में जीने दो,
पर तुम याद नहीं करना.
अब दर्द-ए-दिल के हर गम को,
पीना सीख रहा है कोई.
बस थोड़ी सी याद सजोए,
जीना सीख रहा है कोई.
क्यूँ आलम गमगीन हो गया,आँख मेरी भर आई शायद.
याद तुम्हारी आई शायद.
जय सिंह "गगन"
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