सोमवार, 16 अप्रैल 2012

नेता जी की रिहाई.




*कविता *

नेता जी की रिहाई 

सुबह का अखबार

एक ताज़ा समाचार,

मंत्री जी लापता,

वो थे.

उनका ड्राईवर भी साथ था,

किसी ने कहा- नक्श्लाईट

किसी ने कहा- उल्फा का हाँथ था.

कलेक्टर ने एसपी को बुलाया,समझाया

देखो-सुरक्षा के इंतजामात कड़े कर दो.

हर बाहर जाने वाले रास्ते पर,

अपने जवान खड़े कर दो.

हर गाडी की जाँच की जाए,

कोई भी संदिग्ध व्यक्ति

सीमा के बाहर ना जाने पाए,

इसी बीच न्यूज आई

हमारे संबाददाता ने,

मुख्यमंत्री से संपर्क किया है,

उन्होंने इसे कायरतापूर्ण

कार्यवाही करार दिया है.

आतंकवादियों ने इसका फायदा उठाया.

उनका बयान टीवी न्यूज में आया.

यदि कल तक

शासन ने अपना रुख नहीं मोड़ा,

हमारे तीन साथियों को नहीं छोड़ा

तो हमें उनकी जान पर फ़िदा समझो.

मंत्री जी को इस दुनिया से,

अलविदा समझो.

परन्तु अगले दिन का समाचार

देश शर्मसार

मंत्री जी अपने ग़म को सीकर,

कोई अच्छी सी शराब पीकर,

किसी तवायफ के कोठे पर सो गये थे.

और उनके जगने से पहले

तीन खूंखार आतंकवादी

रिहा हों गये थे.

* जय सिंह "गगन"*

आँखें .






तेरी आँखें,ये जैसे झील या कि मयखाना.


या वो दरिया कि जहां डूबता समंदर है.

रविवार, 15 अप्रैल 2012

गज़ल.


वही शहर है , वही घर , वही नज़ारे हैं.

यहीं पे हमने भी,कई साल गुजारे हैं.

गली ने थाम रखा है,सड़क का दामन,

अटूट रिश्ता है,मगर ताक में दरारें हैं.

वही चौखट,वही कमरे,वही हैं दरवाजे,



दुःख है आँगन का,जिसे बांटती दीवारें है.


वही आँचल,वही ममता ,वही माँ है.


फर्क इतना कि,अब तकदीर के सहारे है.


वही पिता,वही चाहत,मगर झुके कंधे


आख़िरी सांस कोई आस तो निहारे है.


कोई नहीं कि जिसे,फक्र से कहूँ अपना,

और वो खुद भी कहे,"गगन"तो हमारे हैं.

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

पहचान.



सांसों में वो बसा, था सबसे करीब था.

मेरा ही हम सफर, मेरा रकीब था.

वादा.








चलते हैं और वादा है कि फिर मिलेंगें हम.

सफर कठिन है मगर इंतज़ार मत करना.

वास्ता .







जिन्हें पसंद नहीं है बेटियां जमाने में .

ऐसे लोगों से कोई वास्ता अजीब लगता है.

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

किस्मत .








पलकों में उनकी खुद को छुपाया है जितनी बार.

अश्कों से उतनी बार बहाया गया हूँ मैं.

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

जागीर.





अरे छोटी सी बात पर,


इज्जत दांव पर लगाओगे.

कल को जब,

बच्चे भूखे मरेंगे,

तो क्या बेचोगे?

उनके लिए रोटी,

कहाँ से लाओगे?

इक्कीसवीं शदी का भारत.





शहर का भीड़ भरा इलाका,

बम का एक जोरदार धमाका.

टूटी हुई इमारत ,

बगल में लिखा था-

इक्कीसवीं शदी का भारत.

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

गज़ल.





नए शहर की नई गली में एक नया अध्याय मिला.

एक नई मजबूरी देखी,जीने का पर्याय मिला.

यहाँ अमीरी और गरीबी,सिक्के के दो पहलू हैं,

इस गहरी खाई को भरने,हर अमला असहाय मिला.

चेहरे पर चेहरा रखने की,कितनी बड़ी अहमियत है,

वर्षों से गुमनाम रहा जो,वो कल करता हाय मिला.

बुझ जायेगी आग उदर की,कुछ ऐसी उम्मीद जगी,
,
आज उन्हीं उम्मीदों का यूँ,जलता हुआ सराय मिला.

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

शहर मेरा वीराना क्यूँ है.





उम्मीदों की चिता सजी है.
अरमा झरते आँखों से.
धधक रहा है अंतर्मन यह,
सुलगी सुलगी सांसों से.
टूट रहे हैं रिश्ते नाते,
टूट रहे हैं वादे भी.
कठिन कसौटी पर चढते ही,
टूटे नेक इरादे भी.
प्यार और ममता जैसे ये,
सारे शब्द पराये हैं.
अपनों से ही दूर हो रहे,
अब अपने ही साये हैं.

हर चेहरा अपना लगता है,
पर मुझसे अनजाना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?

रौद्र बड़ा है सूरज जाने,
कब जलता आकाश बुझे.
प्यासा अगर समंदर हो तो,
जाने कैसे प्यास बुझे.
कुछ दिन से यह भीड़ बड़ी है,
जाने क्यूँ श्मशानों में.
लाशों की खेती दिखती,
हर खेत और खलिहानो में.

कातिल दिल है तो फिर उसका,
प्यार भरा अफ़साना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?

कैसा देश और कैसी सरहद,
बेच रहे चौराहों पर.
संविधान भी मौन खड़ा है,
इनके किये गुनाहों पर.
कुछ चेहरों को देख डर रहे,
कुछ चेहरे बेचारे देखो.
कुछ के आगे नतमस्तक हैं,
देखो चेहरे सारे देखो.

मेरी ही बंदूकों से यूँ,
मुझ पर सधा निशाना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?

कुर्शी के दीवाने लगते ,
आस-पास के गाँव यहाँ.
ऐसी कानाफूसी मानो,
कल हो कोई चुनाव यहाँ.
वचनबद्ध है कोई चेहरा,
कुछ चेहरों के आगे.
कोई है तैयार खडा
कब,प्रजातंत्र ले भागे.

इनकी संसद सत्ता तो फिर,
सब का आना जाना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?

दरिया जैसी आँखें लेकिन,
पानी की एक बूँद नहीं.
रोते हुए हैसियत कहती,
उसका कोई वजूद नहीं.
घुट-घुट कर मरते हैं चहेरे,
घर की चारदीवारी में.
चौखट पर ईमान बिका,
यह झलक रहा लाचारी में.

नई शदी का नया दौर यह,
लगता मगर पुराना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?

इस हम्माम में सब नंगे फिर,
यह नाटक यह ड्रामा कैसा?
काले दिल का धन काला तो,
फिर उस पर हंगामा कैसा?
जो चेहरा हमको दिखता वह,
केवल एक मुखौटा है.
असली चेहरा,बेच वतन को,
कल विदेश से लौटा है.

बस्ती का बच्चा-बच्चा फिर,
सिस्टम का दीवाना क्यूँ है?
शहर मेरा वीराना क्यूँ है?