गज़ल
भूखी,नंगी बेबस सी, आवाम, तुम्हारी बस्ती में.
पूछ रहे हो कैसे गुज़री, शाम, तुम्हारी बस्ती में.
पीट रहे हो खूब ढिढोरा, मैंने किया विकास बहुत,
हर बीमारी करती है, आराम, तुम्हारी बस्ती में.
टपक रहे हैं घर के छप्पर, अंधियारे का डेरा है,
ऐसी बदबू, जीना लगे, हराम, तुम्हारी बस्ती में.
सूखा स्तन मुंह में दे कर, बच्चे को बहलाने की,
सारी कोशिश माँ की है, नाकाम, तुम्हारी बस्ती में.
बेगारी ने हुनर को जोड़ा, अपराधों के दामन से,
हर काले धंधे चलते, अविराम, तुम्हारी बस्ती में.
पथराई आँखों से सपना, केवल तुमने छीना है.
पथराई आँखों से सपना, केवल तुमने छीना है.
होने को बस”गगन”हुआ, बदनाम, तुम्हारी बस्ती में.
जय सिंह”गगन”
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