गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

भ्रम


संसद में रोटी का मुद्दा,फिर शायद गरमायेगा.

यह बजट तो इस कलंक को,अब की बार मिटाएगा.

कंकड,पत्थर रख हांडी में,माँ फिर उसे पकायेगी,

फिर से उसका भूखा बेटा,भ्रम खाकर सो जाएगा.




जय सिंह"गगन"

तुम्हारी बस्ती में.





गज़ल 

भूखी,नंगी बेबस सी, आवाम, तुम्हारी बस्ती में.

पूछ रहे हो कैसे गुज़री, शाम, तुम्हारी बस्ती में.

पीट रहे हो खूब ढिढोरा, मैंने किया विकास बहुत,

हर बीमारी करती है, आराम, तुम्हारी बस्ती में.

टपक रहे हैं घर के छप्पर, अंधियारे का डेरा है,

ऐसी बदबू, जीना लगे, हराम, तुम्हारी बस्ती में.

सूखा स्तन मुंह में दे कर, बच्चे को बहलाने की,

सारी कोशिश माँ की है, नाकाम, तुम्हारी बस्ती में.

बेगारी ने हुनर को जोड़ा, अपराधों के दामन से,

हर काले धंधे चलते, अविराम, तुम्हारी बस्ती में.


पथराई आँखों से सपना, केवल तुमने छीना है.

होने को बसगगनहुआ, बदनाम, तुम्हारी बस्ती में.

                         जय सिंहगगन

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

चाहत.




यहाँ अँधेरा बड़ा घना है,कब तक सर टकरायेंगे.

शब्द हमारे तनहां हैं यूँ,आखिर कब तक गायेंगे.

इस धरती से उस अम्बर तक,छाई बस वीरानी है,

तुम होंठों से छूलो इक-इक,हर्फ़ गज़ल बन जायेंगें.

जय सिंह"गगन"