गज़ल
उसने मेरा दिल तोड़ा है, खैर हो गया जाने दो.
गैरों की महफ़िल सूनी थी , थोडा उसे सजाने दो.
जाने कितनी बार हमारा, दिल रोया है रातों को,
बहते हैं नासूर इन्हें तो, हौले से बह जाने दो.
चर्चे अक्सर ही होते थे, उनकी भी तन्हाई के,
वर्षों की खामोशी को भी,हंसने और हंसाने दो.
शीशे जैसा दिल था मेरा, यूँ टूटा की बिखर गया,
घर के खाली कमरों में ये, टुकड़े मुझे सजाने दो.
एक शिकायत आँखों की है, अश्कों की रुसवाई की,
खता हुई जो इनसे तो फिर, सजा इन्हें ही पाने दो.
सब कहते हैं इस आलम में हाल“गगन”का क्या होगा.
मैं कहता हूँ मेरी छोडो, उनको मुझे भुलाने दो.
जय सिंह “गगन”
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