* कविता*
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
इतने कंश बढ़ गये किसको छोडूं किसको मारूँ.
हर गर्दन है शिशुपाल की कैसे इन्हें उतारूँ.
गुरु द्रोण के घर पर डाला विजिलेंस ने छापा.
अब तिहाड़ में काटेंगे वो अपना शेष बुढ़ापा .
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
कितनी हैं चालाक गोपियाँ इसका तुम्हें गुमान नहीं.
कितने हैं गोपाला इनके यह तुमको अनुमान नहीं.
बिना चीर पांचाली घूमें पाण्डुपुत्र को होश नहीं
ऐसे चीर हरण में उधो दुशाशन का दोष नहीं.
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
कालयवन की पूजा करता सत्ता का गलियारा.
दीन सुदामा को इस युग में किसका मिले सहारा .
धरना और प्रदर्शन में भी होता है हंगामा.
हर जलशे में शामिल होते कितने शकुनी मामा .
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
क़त्ल हुआ अभिमन्यु का तो बैठी जाँच कमेटी .
इन सब का नेतृत्व करेगी जरासंध की बेटी.
मस्त घूमते यहाँ जयद्रथ मिलता आत्म शकून.
अर्जुन हैं मजबूर लगे ना टाडा का क़ानून.
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
रोज कर्ण पैदा होते हैं अर्जुन कभी कभार.
आज सूर्य की कुटिल दृष्टि से कुंती है लाचार.
कण-कण में है छाया कलयुग द्वापर लगे कहानी सा.
बरसाने में कहाँ प्यार है अपनी राधा रानी सा.
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
अफसर बन ध्रितराष्ट्र छुपाते करनी खुद दुर्योधन की.
कैसे पीर सहूँ मैं उधो पाण्डु- पुत्र के रोदन की.
बचन-बद्ध हैं भीष्म पितामह उन्हें बोझ यह ढोने दो.
तुम भी जाओ गोकुल को और जो होता है होने दो.
उधौ सब कुछ बदल चुका है.
जय सिंह "गगन"
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