कल फिर दहल उठेगा सायद कोई शहर धमाके से.
झेल रहे हैं हम झेलेंगें झेलम पार उतरने दो ना.
हमको चहिए अमन शांति जो मरते हैं मरने दो ना.
वो भी शायद मानव हैं पर मानव के प्रति दया नहीं है.
मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.
एक अबोध बालिका लुट कर कल फिर पहुंची थाने में.
शर्मशार थी फिर मानवता उसकी रपट लिखने में.
कितनी आज तरक्की करता नई सदी का मानव देखो.
कितनी दुल्हन रोज फूंकता यह दहेज़ का दानव देखो.
अर्जुन के घर घुसा दुशासन जिसके अन्दर हया नहीं है.
मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.
एक अबोध को मिला सहारा कल फिर से फुटपाथों का.
एक गाँव में जन्मा बच्चा फिर दो सर दो हांथों का.
हर सांसों में घुसा प्रदुषण फैला दाने दाने में.
कल फिर बीस मर गये शायद जहर मिला था खाने में.
है विज्ञान अग्रसर उस पथ जिस पथ कोई गया नहीं है.
मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.
रोटी को मुहताज घुमती करमचंद की आस यहाँ.
प्लेटफ़ॉर्म पर चाय बेंचते कितने वीर शुभाष यहाँ.
भ्रष्टाचार रुकेगा कैसे शायद भारतमाता जाने.
कौन देश का रक्षक होगा यह तो वही विधाता जाने.
ऐसे रोज वाकये छपते जिनका कोई बंयाँ नहीं है.
मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.
जय सिंह "गगन"
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