सोमवार, 30 जनवरी 2012

उन्हें क्या दे दूं.






गज़ल 

चाहते हैं वो मेरा साथ, उन्हें क्या दे दूं.?

मेरे अच्छे नहीं हालात, उन्हें क्या दे दूं.?

दुःख दूं , दर्द दूं , या कि तनहाई ,

चंद खुद से ये सवालात उन्हें क्या दे दूं.?

आँख से रिस रहा लहू शायद ,

घायल हैं मेरे जज्बात उन्हें क्या दे दूं.?

बंट गयी रोशनी अमीरों में,

मेरे हिस्से में सियाह रात उन्हें क्या दे दूं.?

रोज बिकता हूँ रोटियों के लिए,

चंद सिक्के मेरी औकात उन्हें क्या दे दूं.?

क़त्ल होती हैं रोज उम्मीदें ,

मेरे सर है इल्जामात उन्हें क्या दे दूं.?

जी रहा हूँ मैं मुफलिसों कि तरह,

मेरी खुद की यही जमात उन्हें क्या दे दूं.?

                      जय सिंह"गगन"

गज़ल




गज़ल

उसने मेरा दिल तोड़ा है, खैर हो गया जाने दो.

गैरों की महफ़िल सूनी थी , थोडा उसे सजाने दो.

जाने कितनी बार हमारा, दिल रोया है रातों को,

बहते हैं नासूर इन्हें तो, हौले से बह जाने दो.

चर्चे अक्सर ही होते थे, उनकी भी तन्हाई के,

वर्षों की खामोशी को भी,हंसने और हंसाने दो.

शीशे जैसा दिल था मेरा, यूँ टूटा की बिखर गया,

घर के खाली कमरों में ये, टुकड़े मुझे सजाने दो.

एक शिकायत आँखों की है, अश्कों की रुसवाई की,

खता हुई जो इनसे तो फिर, सजा इन्हें ही पाने दो.

सब कहते हैं इस आलम में हालगगनका क्या होगा.

मैं कहता हूँ मेरी छोडो, उनको मुझे भुलाने दो.
     
                        जय सिंह गगन

शनिवार, 28 जनवरी 2012

शत-शत नमन........




राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी जी  पर विशेष............



श्रद्धा सुमन समर्पित करता राष्ट्रपिता को आज वतन.


सदा किया है और करेगा बापू जी पर नाज़ वतन.


सत्य अहिंसा शस्त्र बनाया ढाल बनाया खादी को,


अपने प्राणों की आहुति दे सौंपी इस आज़ादी को.


याद् करेगा नाम आँखों से सदा जिन्हें आवाम हमारा 


प्यारे बापू के चरणों में शत-शत नमन प्रणाम हमारा

शर्म नहीं है...





कविता 

नमक महगा ,

तेल महगा,

सेव छोडो ,

बेल महगा.

गैस और घासलेट,

इनसे अब काम मत लो.

रोटी, कपड़ा और मकान,

इनका तो नाम मत लो.

सब्जी के भाव का झटका,

रातों को भी जगाएगा.

बिजली का बिल,

बेहोशी देने के कम आएगा.

शराब सस्ती है,

पर इनसे लड़ नही पाएगी.

कम्बख़्त चढ़ते ही उतर जाएगी.

इंसान घुट- घुट कर

मरने पर मजबूर है.

महगी दवाएँ आम आदमी से दूर हैं.

ग़रीबों के साथ ऐसा मज़ाक,

दुष्कर्म है, सत्कर्म नही है.

फिर भी इस देश के आकाओं को

शर्म नही है.

जय सिंह "गगन"

साक्षात्कार





कविता

पढ़कर अखबार का इश्तहार

दो होनहार

अनुभवहीन,

अपनी धुन में लीन,

साक्षात्कार देने पंहुचे.

पहले का नौकरी मिलना श्योर था.

पर दूसरा पढने में कमजोर था.

लिहाजा दुसरे ने पहले से कहा-

यार तूँ तो स्कूल की शान था,

पहले से ही बुद्धिमान था,

मेरी भी नैया पार लगा दे.

क्या पूंछेगे कुछ मुझे भी बता दे.

पहले ने कहा-छोड़ यार

क्यूँ दिमाग खपाता है.

घंटे भर पहले से क्यूँ घबराता है.

मेरे अन्दर आते ही

तूँ धीरे से आना.

और वहीँ पर गेट से सट जाना.

मैं जो भी अन्दर जबाब दूंगा उसे रट जाना.

बस उसके बाद सारा टेंशन हटा देना

अन्दर जब पूंछें बता देना.

इतने में शुरू हुआ सिलसिला

पहले को अन्दर जाने का परमीशन मिला.

दूसरा उसके बताये अनुसार जबाब सुनने लगा.

उसमे से अपना उत्तर चुनने लगा.

प्रश्न था-भारत में अंग्रेजों की नीव कब हिली?

देश को आज़ादी कब मिली?

उत्तर था- सन ४२ में शंखनाद हुआ

तब जा कर

सन ४७ में देश आज़ाद हुआ.

प्रश्न था-ठीक है आगे आइये.

इस जंग में शहीद हुए लोंगों के नाम बताइए.

उत्तर था-सर इनकी संख्या बेशुमार है.

किसी एक का नाम लेना बेकार है.

अंतिम प्रश्न-वैसे तो हम सभी मंगल को,

पृथ्वी का जुड़वाँ भाई मानते हैं.

पर क्या वहां जीवन है

इसके बारे में आप क्या जानते है?

उत्तर था-सर हमने यान भेजे हैं,

अब मानव की बारी है.

जीवन के अस्तित्व की खोज जारी है.

इतने में बजर दबाया गया,

दुसरे को अन्दर बुलाया गया.

कमेटी मेंबर बोले-दिखने में तो आप स्मार्ट हैं,होनहार हैं.

क्या प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हैं?

अब तक दुसरे का दूर हों चूका था डर,

तपाक से बोला यस सर,

कमेटी मेंबर बोले-बैठ जाइये,

आपका जन्म कब हुआ बताइए?

लड़का बोला-सर प्रक्रिया शुरू हुई सन ४२ में,

आज़ाद हुआ सन ४७ में.

मेंबर बोले-मिस्टर होश में आइये ,

अपने पिता का नाम बताइए?

लड़का बोला -सर इनकी सख्या बेशुमार है.

किसी एक का नाम लेना बेकार है.

कमेटी मेंबर बोले-क्या बेवकूफी ने तुम्हारी मति मारी है?

लड़का बोला-सर खोज अभी जारी है.


जय सिंह "गगन"

तुम क्यूँ चले गये..





ग़ज़ल



रिश्तों की डोर तोड़कर तुम क्यूँ चले गये.

मजधार में यूँ छोड़ कर तुम क्यूँ चले गये.

मैं पूंछता तुमसे मेरा था गुनाह क्या.

फिर इस कदर मुंह मोड़कर तुम क्यूँ चले गये.

चाहूँ तो कभी चाह कर भी भूल ना सकूँ.

यादों से अपनी जोड़कर तुम क्यूँ चले गये.

आँखों से आंसुओं का सैलाब बह रहा.

पलकों को मेरी खोल कर तुम क्यूँ चले गये.

हकीकत ना सही ख्वाब में ही बात तो होती.

आये और टटोलकर तुम क्यूँ चले गये.

नीरस सी जिंदगी है कोई रस नहीं रहा.

"गगन"को निचोड़ कर तुम क्यूँ चले गये.


जय सिंह "गगन"

अन्ना आन्दोलन पर विशेष...........






*कविता *


सिसकती रात की तन्हाई में,

मेरा मन, मेरी रूह ,

मुझे उस ओर

खींच ले जाती है.

जहाँ किसी की आह ,

हमारे आन्दोलन पर,

उंगली उठाती है.



फुटपाथ पर निर्वस्त्र लेटा बच्चा,

जिसका तन कहीं,मन कहीं है.

जिसे अपने परिवार का ,

पता नहीं है.

दो वक्त की रोटी के लिए,

मुहताज हों रहा है.

कुत्ते बिल्ली की तरह ,

मार खाता रो रहा है.



आदरणीय अन्ना जी 
,
हमें उनके आंसुओं का हिसाब देना है.

उनके हांथों में,

शस्त्र नहीं ,किताब देना है.




यहाँ वक्त के पहले ही,

कई कलियाँ फूल बनकर ,

मुरझा जाती हैं.

खो जाती हैं.

जिस्म के बाज़ार में बिक कर

शहीद हों जाती हैं.

देखो तो महानगरों में,

ऐसे वाकये आम हैं ,

पर इस दलदल से इनकी मुक्ति का,

हमारा हर प्रयास ,

नाकाम है.




आदरणीय अन्ना जी ,

आज नहीं तो कल हमें फिर आना है.

उस माँ की पूजा कर,

उसकी कोख से,

जन्म पाना है.




हर गली हर चौराहे पर,

एक बेरोजगार की लाश

दबी है ,सड़ी है.

कौन देखे,

किसी को क्या पड़ी है.

मंहगाई की मार ,

बेरोजगारी का भार,

कमर को तोड़ देता है.

रोटी, कपड़ा, और मकान की

जरुरत का सपना,

इन प्रतिभाओं को,

विनाश की ओर मोड़ देता है.




आदरणीय अन्ना जी ,

हमें इनमें,

देश प्रेम की भक्ति को,

जगाना है.

इनकी सूख चुकी रंगों में,

संघर्ष की शक्ति लाना है.




आदरणीय अन्ना जी ,

बस एक छोटी सी आस के सहारे,

इस सार्थक ,

प्रयास के सहारे,

हमें अपने देश पर लगे,

कलंक को धोना है.

इन हंसते -खेलते दिलों में,

एक सच्चे देश-भक्त की तरह,

अमर होना है.


जय सिंह "गगन"

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

यह तो कोई नया नहीं है.





कल कुछ दहशत -गर्द घुसे हैं फिर सरहद के नाके से.

कल फिर दहल उठेगा सायद कोई शहर धमाके से.

झेल रहे हैं हम झेलेंगें झेलम पार उतरने दो ना.

हमको चहिए अमन शांति जो मरते हैं मरने दो ना.



वो भी शायद मानव हैं पर मानव के प्रति दया नहीं है.

मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.



एक अबोध बालिका लुट कर कल फिर पहुंची थाने में.

शर्मशार थी फिर मानवता उसकी रपट लिखने में.

कितनी आज तरक्की करता नई सदी का मानव देखो.

कितनी दुल्हन रोज फूंकता यह दहेज़ का दानव देखो.



अर्जुन के घर घुसा दुशासन जिसके अन्दर हया नहीं है.

मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.



एक अबोध को मिला सहारा कल फिर से फुटपाथों का.

एक गाँव में जन्मा बच्चा फिर दो सर दो हांथों का.

हर सांसों में घुसा प्रदुषण फैला दाने दाने में.

कल फिर बीस मर गये शायद जहर मिला था खाने में.



है विज्ञान अग्रसर उस पथ जिस पथ कोई गया नहीं है.

मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.



रोटी को मुहताज घुमती करमचंद की आस यहाँ.

प्लेटफ़ॉर्म पर चाय बेंचते कितने वीर शुभाष यहाँ.

भ्रष्टाचार रुकेगा कैसे शायद भारतमाता जाने.

कौन देश का रक्षक होगा यह तो वही विधाता जाने.



ऐसे रोज वाकये छपते जिनका कोई बंयाँ नहीं है.

मै भी आखिर कितना सोचूं यह तो कोई नया नहीं है.


जय सिंह "गगन"

मत कहो मुझे दुःख की गगरी.







मत कहो मुझे दुःख की गगरी मैं माँ की राजदुलारी हूँ.

अबला बेबस असहाय नहीं मैं पिय की प्राण पियारी हूँ.


तुम करो न मुझसे भेदभाव मुझको दुनिया में आने दो,

मैं खुद को साबित कर दूँगी मुझे अपना फर्ज निभाने दो.


भारत की मैं जीवन रेखा मैं नदियों की जलधारा हूँ.

मैं धरती की हरियाली हूँ मैं आसमान का तारा हूँ.


एवेरेस्ट पर इन क़दमों के खोजो तुम्हें निशान मिलेंगे.

सागर की गहराई में भी नव-जीवंत प्रमाण मिलेंगे.


युगों-युगों से इन कवियों ने मेरी महिमा गाई है.

है इतिहास गवाह सदा ही हमने वफ़ा निभाई है.


मातृभूमि की रक्षा करने मैं रजिया सुल्तान बनी.

अमर प्रेम की गाथा गति मैं मुमताज महान बनी.


राधा बनकर मैंने ही तो पावन प्यार की शिक्षा दी है.

सीता बनकर पवित्रता की मैंने अग्नि परीक्षा दी है.


आदि शक्ति माँ काली बनकर चंड-मुंड को मारा मैंने.

पतित पावनी गंगा बनकर हर पतितों को तारा मैंने.


सती अहिल्या बन श्रापों का सारा बोझ उठाया मैंने.

कौशिल्या-सुमित्रा बनकर राम लखन को लाया मैंने.


रम्भा और मेनका बनकर तप का मान बढाया मैंने.

शबरी बनकर नारायण को जुंठे बेर खिलाया मैंने.


मेरा ही वह खून था रोका अस्वमेध का घोडा जिसने.

मैंने ही अभिमन्यू जन्मा चक्रब्यूह को तोडा जिसने.


मैं भारत माता का आँचल तन पर लिपटी खादी मैं.

शाहस की परिभासा कहती वही इंदिरा गाँधी मैं.


जब जब छेड़ी तान "लता"बन यह जग सारा झूमां है.

यहीं "कल्पना"बनकर मैंने आसमान को चूमा है.


सरहद पर जान लुटाने को मैं खड़ी लिए तलवार सदा.

दुश्मन को मजा चखाने को मैं तत्पर और तैयार सदा.


फेरे सात लिए जिसके संग सातों जनम निभाया मैंने.

हर संभव क़ुरबानी देकर सदा प्यार बरसाया मैंने.


मैं तो हूँ बस प्रेम दीवानी और कोई इल्जाम न दो.

नहीं चाहिए श्रद्धा मुझको पर अबला का नाम न दो.


जहर सदा ही पीती आई और कहो तो पी लुंगी.

मैं कान्हा के इन्तजार में राधा बनकर जी लुंगी.


झूंठी रस्मों के बंधन से खुद को जोड़ नहीं सकती.

अनचाहे रिश्तों के खातिर दुनियां छोड़ नहीं सकती.


प्रेम दीवानी मीरा कह लो या झाँसी की रानी तुम.

मैं प्रयाग पथ पर अबला बन पत्थर तोड़ नहीं सकती.

जय सिंह "गगन"