सोमवार, 3 दिसंबर 2012

लौट आओ.



ग़ज़ल

ऐ जाने जिगर जाने बहार लौट आओ
यूँ ढूढता है तुमको मेरा प्यार लौट आओ.

हर सौक फ़ना हो गए श्रृंगार छिन गया,
बाँहों का वही डालने गलहार लौट आओ.

तुम बेवफा थे दिल ये मेरा मान ले कैसे,
मेरे लिए बने हो मेरे यार लौट आओ.

एक नाम से तुम्हारे सब लोग आ गए,
बस हो रहा तुम्हारा इंतजार लौट आओ.

ये जान भी है हाजिर क्या इम्तहान दूं,
हर साँस मेरी तुम पर निसार लौट आओ.

जो ढूढती है अपने उस कदरदान को.
उन पायलों की सुनने झंकार लौट आओ.

कोई नहीं तुम्हारी बस याद के सिवा
सुना है मेरा सारा संसार लौट आओ.

ये रूठना मनाना अब बहुत हो चुका.
मिलने को कोई तुमसे बेकरार लौट आओ.

अब मेल है ये आखिरी धरती से गगन का,
बस एक और सिर्फ एक बार लौट आओ,

जय सिंह "गगन"

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अंदाज़-ए-बयां.




न तो वो शख्स बदला है, न उसका प्यार बदला है.
न वो तस्वीर बदली है, न वो रुखसार बदला है,
बदलना वक्त के माफिक, तकाजा है जमाने का,
तभी तो यूँ मुहब्बत में, ज़रा इजहार बदला है.

जय सिंह "गगन"

बुधवार, 28 नवंबर 2012

विकास देखिये.



वर्षों से चिपकी आँतों में, पलता यह उपवास देखिये.
बच्चों-बूढों की आँखों से, बहता हुआ विकास देखिये.

आज नहीं तो गम कैसा, कल सभी पेट भर खायेंगे,
भूखे चेहरों को समझाता, चेहरा एक उदास देखिये.

सरकारी चौखट पर जब से, सूरज पहरेदार हुआ,
काला स्याह अन्धेरा पसरा, बस्ती में बिंदास देखिये.

वादे टूटे , चाहत झुलसी , हर सपना काफूर हुआ,
थोड़ी सी उम्मीदों का यूँ, कैसे हुआ विनाश देखिये.

सत्ता के गलियारे में है, महगाई की मार कहाँ,
सारे शौक नबाबी करते, हम सब का उपहास देखिये.

बदबू दार नालियाँ , सड़कें गड्ढों में तब्दील हुयी,
गावों के बदले जाने का, ऐसा हुआ प्रयास देखिये.

संसद की मर्यादा लूटी “गगन” कई घोटालों ने,
शर्मसार है जनता सारी, हिन्दुस्तान निराश देखिये.

जय सिंह "गगन"

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

पावस में.



खिलने को आतुर रहता था जो,काली घनी अमावास में.
क्यूँ खोया-खोया गुमसुम सा है,वह चाँद हमारा पावस में.

"गगन"

शनिवार, 24 नवंबर 2012

क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?



बेबसी घर-घर बसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?
रूह में खंजर धंसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

हर शहर में रावणों की ताज पोशी देखकर,
राम पर लंका हँसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

फिर परीक्षित हो फना यूँ  मित्रता के श्राप से,
फिर कोई तक्षक डसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

देख कर बेजान पुतला कल अगर ध्रितराष्ट्र के,
दंभ बस बाजू कसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

लूट ले सूरज न कोई फिर किसी की आरजू,
छद्म बस कुंती फंसे, क्या यह तुम्हें अच्छा लगेगा?

जय सिंह गगन

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

वजूद.



विता 

मत झांको,
बीते हुए कल के झरोंखों से,
वो खौफनाक हादसे ,
तुम्हें झकझोर देंगे.
वक्त के साथ धुंधले हों चुके,
यातनाओं के अक्श,
वर्षों से तिल-तिल बढ़ते,
मनोबल को तोड़ देंगे.
जहन में पैदा होती ,
महत्वाकांक्षायों को पनपने दो,
कुंठाओं से ग्रसित ,
जिंदगी की असीम रातों को,
सुन्दर और हसीन सपने दो.
समाज की दकियानूशी बंदिशें ,
तुम्हारी कामयाबी पर ,
ग्रहण लगा रही हैं.
सफलता तुम्हारे पास हों कर भी ,
तुम्हें छू नहीं पा रही है.
घूँघट के अन्दर कैद तुम्हारी शक्ति को,
आज का परिवेश
सबला के रूप में पहचानने से,
इनकार कर रहा है.
तुम्हारे साथ चाँद पर
कदम रखने से डर रहा है.
इसलिए समय का लोहा गर्म है,
हंथौडा मारो,
समाज को वक्त के आइने में उतारो.
याद रहे,
वक्त की ठोकरों से सूख चुकी ,
पेंड की हर टहनी को,
तुम्हें पतवार बनाना है.
अबला के रूप में कदम कदम पर,
रौंदी गई मिटटी को,
चमक दमक एवं कांति से परिपूर्ण ,
मीनार बनाना है.
जिसका अप्रतीम सौन्दर्य ,
सारी कायनात को भा जाए.
जिसकी चोटी पर खड़े हों कर,
यदि तुम बांहें फैलाओ तो
सारा आसमान उसमें समां जाए.
"जय सिंह "गगन"

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

परिवर्तन.



खामोशी की चादर ओढ़े,
कदम मेरे लाचार हो गए.
उनके जब भी होठ हिले तो,
वो बहुमूल्य विचार हो गए.
हम अपनी दृढ़ता पर कायम,
लटक रहे औराई में,
एक हवा के झोके में ही,
वो गिर गए अचार हो गए.
"गगन"

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

जिंदगी हिसाब मांगती है.



 कविता
   जिंदगी हिसाब मांगती है.

वक्त जो गुजर चुका जबाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
       है जिगर दहल रहा
      खलबली मची यहाँ.
     तन तो है पिघल चुका,
     रूह बस बची यहाँ.
 अब तलक जो ढल चुका शबाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
      सो रहा था ये जहाँ,
     आँख जागती रही.
     कारॅवा था रुक गया,
     साँस भागती रही.
 चूर-चूर हो चुका जो ख्वाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
      उजड़ चुका चमन जो आज,
    फिर से सज रहा यहाँ,
    बेसुरा अजीब सा,
    गीत बज रहा यहाँ.
 वादियाँ वो खुश्बू-ए-गुलाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
     थी असीम चाहतें,
    एक भी मिली नहीं.
    इंतज़ार रह गया,
    पर कली खिली नहीं.
 खिली हुई धूप आफताब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
     है जलधि समीप पर,
    प्यास तो बची नहीं.
    अब गुबार है बचा,
    आस तो बची नहीं.
 फिर वही जूनून वो रुआब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.

                   जय सिंह "गगन"

आइना तो आइना है.


कविता             
आइना तो आइना है.........

ढलती उम्र की दहलीज पर, 
कदम रखते ही,
जिंदगी के अनुभवों को सुनाना,
जन्म लेती नई पीढ़ी को, 
नैतिकता का पाठ पढ़ाना,
बेशक तुम्हारी महत्वाकांक्षा को, 
नया मोड़ देगा,

पर आईना तो आईना है, 
यह सारे मिथक तोड़ देगा.
  
रोजगार की तलाश में घूमती,
नव चेतन की आत्माएं,
दफ्तरों को अपना निशाना बनायेंगी.
खुद्दारी और नैतिकता की तालीम,
कदम-कदम पर परखी जाएगी.
भूख से तडपता नौनिहाल,
तुम्हें अन्दर तक निचोड़ देगा.

पर आईना तो आईना है, 
यह सारे मिथक तोड़ देगा.
  
नित्य प्रति बढ़ते दहेज़ के ग्राफ से,
हमारी आरती उतारी जायेगी.
बढती महगाई के बोझ तले,
बालिकाएं तो, 
भ्रूण में ही मारी जाएँगी.
आधुनिकता में जी रहा समाज,
कन्यादान की, 
आस छोड़ देगा.

पर आईना तो आईना है, 
यह सारे मिथक तोड़ देगा.

लाइलाज बीमारी से ग्रस्त, 
लक्ष्मण के लिए भगवान राम, 
रो रो कर दवा मांगेगे.
लंका में सोये शुखेन से हनुमान,
प्रदूषण मुक्त हवा मांगेगे.
असह्य वेदना से कराहता पर्वतराज,
पवनपुत्र को,
कैंसर और कोढ़ देगा,

पर आईना तो आईना है, 
यह सारे मिथक तोड़ देगा.

"गगन"

बुधवार, 26 सितंबर 2012

नदिया और किनारा.




हम बर्षों के बाद मिले यूँ, जैसे सूखे फूल खिले यूँ ,
ठण्ड पवन पुरवाई आयी, गुलशन में रानाई आयी,
बागों के पत्ते बजते यूँ, खनक रहे हों कंगन जैसे,
लहराती बेलों का होता, पौधों से आलिंगन जैसे,
मैं नदिया मेरे किनारे तुम,खुद से मुझको टकराने दो,
हौले से खोलो घूंघट पट,बाहों में मुझे समाने दो.

मैं तो एक उफनती नदिया, जिसका एक किनारा तुम हो,
लहरों की खामोशी का बस,केवल एक सहारा तुम हो,
मुझसे प्यास बुझाने वाला,शायद अंतिम जाम वही है,
वह तो है इक प्यासा सागर,मेरा सिर्फ मुकाम वही है,
माना यह अनचाहा बंधन,लेकिन मिलन जरूरी भी है,
नदियों का सागर से संगम,जन्मों की मजबूरी भी है.

यह जो है रीति सनातन से,तुम मुझको इसे निभाने दो,
तट-बंध बनो बस छुओ मुझे,मैं बहती हूँ बह जाने दो.

अश्कों को रोको बहें नहीं,इन आँखों को समझाओ तुम,
यह दर्द-ए-जिगर तुम्हारा है,सब के आगे मत गाओ तुम,
मंजिल उल्फत की यही प्रिये,आगे राहों में कांटे है,
यह कोलाहल है क्षणिक सुनो,फिर तो बिखरे सन्नाटे हैं,
इन वर्षों के इंतज़ार में, उल्फत है रुशावाई भी है,
दो पल की खुशियों के आगे, लम्बी एक जुदाई भी है,

लहरों को चूमो प्यार करो,बाहों का दे दो हार इन्हें,
मैं खो जाऊं बस यादों में,तुम दे दो सारा प्यार इन्हें,
मगरूर समंदर आतुर है,शदियों से हमको पाने को,
मासूम मचलती धारा को,क्षण भर में ही पी जाने को.
अब भूलो मेरी हकीकत को,बस यादों में एहसास करो,
है साथ मगर जो दूरी है,कुछ उस पर तो विश्वास करो.

शायद मेरी है नियति यही,तुम मुझको ठोकर खाने दो,
टकराने दो चट्टानों से,मैं बंटती हूँ बंट जाने दो,

 जय सिंहगगन

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

लौट आओ(रिकार्डिंग).

याद तुम्हारी आयी शायद(रिकार्डिंग).

मत कहो मुझे दुःख की गगरी (रिकार्डिंग).

एक ख़त महबूब के नाम (रिकार्डिंग).

चल चन्दा उस देश (रिकार्डिंग).

सावन (रिकार्डिंग).

राह-ए-जन्नत.



है अगर तमन्ना जन्नत की मैं तुमको मार्ग बताता हूँ.

तुम मरने को तैयार रहो मैं जन्नत लेकर आता हूँ.

"गगन"

सोमवार, 24 सितंबर 2012

शायद चाँद चुराने की.


ग़ज़ल
आसमान को पड़ी जरूरत, तारों को समझाने की.
सबने मिलकर कोशिश की थी, शायद चाँद चुराने की.
भरी दोपहर स्याह हो गयी, सूरज की रुशवाई से,
दिन को आखिर पड़ी जरूरत, शमां तुझे जलाने की.
यह कैसी वीरानी पसरी , मधुवन में, औराई में ,
किसने की है जुर्रत आखिर, कोयल तुझे रुलाने की.
गुलशन को है राज पता यह, फूलों की खामोशी का,
उसकी ही शाजिश थी शायद, भौरों को बहकाने की,
फिर से यह इल्जाम लगा है, बस्ती तेरी गरीबी पर,
उसने फिर से कोशिश की है, ख़्वाबों को दफनाने की.
रातों को यादें मिलाती है, अक्सर उनकी यादों से,
तन्हां घर में खुली छूट है, सब के आने-जाने की.

गगन

जरूरत.



आसमान को पड़ी जरूरत तारों को समझाने की.
.
सबने मिलकर कोशिश की है शायद चाँद चुराने की.


"गगन"

शनिवार, 22 सितंबर 2012

उलझन.



 ग़ज़ल

मुहब्बत है, या यह कोई गले की फाँस है प्यारे.
गली कूचों मे भी होता मेरा उपहास है प्यारे.
हसीं थे ख्वाब अब लटके दिखे फाँसी के फंदे हैं,
मेरी आँखों को शायद हो गया बनवास है प्यारे.
कभी पायल वो छनकाए,कभी छू कर गुजर जाए,
अंधेरों में भी यूँ , उसका किया अहसास है प्यारे.
अजब सा हाल है यारों यहाँ चेहरे की रंगत का,
कि जन्मों से किया मैने कोई उपवास है प्यारे.
नहीं मालूम था यह रोग कि,इतना बुरा होगा,
हुई जो भूल अब उसका हुआ आभास है प्यारे.

"गगन"

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

आरजू.



हमसे बस दो बातें शायद उनकी भी मजबूरी है.

कहते हैं नफरत के खातिर थोडा प्यार जरूरी है.

उनकी यादें दिल में लेकर मैं जागा हूँ रातों को,

पर उनका सपना बनने की चाहत मगर अधूरी है.

"गगन"

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

हौसला.



किश्तिया समंदर में तूफ़ानों से संभाली है.
सूरज से अपने हिस्से की धूप भी निकाली है.
हौसला हो अगर हालात से लड़ने का तो,
लोगों ने यहाँ मौत की तारीख बदल डाली है.

"गगन"

अनुनय-विनय



अनुनय-विनय

हे गणपति दुःख-हर्ता सुन लो,सबके मंगल-कर्ता सुन लो,

खुशियाँ हैं,लाचारी भी हैं,किंचित विनय हमारी भी है,

करो प्रफुल्लित जन जीवन को,महगाई से टूटे मन को,

भूख हरो बेगारी हर लो, सारी भ्रष्टाचारी हर लो,

अत्याचार मिटाने आओ,सच्चा मार्ग दिखाने आओ,

देश बने फिर न्यारा प्रभु जी,फैले भाईचारा प्रभु जी,

एक देश हो नेक रीति हो,पाक साफ़ फिर राजनीति हो,

सबको सत्य वचन से भर दो,हर ग़रीब को धन से भर दो,

प्रथम-पूज्य हे गणपति-बप्पा बिनती यही हमारी प्रभु जी.

उम्मीदों का दामन थामें आया शरण तुम्हारी प्रभु जी.

जय हो वक्र-तुंड की, जय हो महाकाय विघ्नेश की.

जय हो प्रथम पूज्य प्रभुवर की,गौरी-पुत्र गणेश की.

शत-शत चरण वंदन प्रभु जी,

गगन

बुधवार, 19 सितंबर 2012

कशिश.




तुम दिल से जुदा यूँ जब से हुए, वह तुम्हे पुकारा करता है.

हर मिलने जुलने वालों से मिलते ही किनारा करता है.

गैरों की बाहें मिली मगर,वो उसे सहारा दे न सकी,

वो हर कमसिन की आँखों में बस तुम्हें निहारा करता है.

"गगन"

इंतज़ार.



कोई कह दे की अब उनको निरखना छोड़ दें आँखें.

कि उनकी याद में बिन मौसम बरसना छोड़ दें आँखें.

जो अपना था कभी अब हो चुका शायद पराया है,

कि अब दीदार को उनके तरसना छोड़ दें आँखें.

"गगन"

बुधवार, 5 सितंबर 2012

ग़ज़ल.





वर्षों से एक बूँद को प्यासी जमीन है.
लोंगो को इन घटाओं पर फिर भी यकीन है.

यह दौर मुहब्बत का ज़रा तेज है मगर,
ठहरा हुआ ही अक्सर लगता हसीन है.

दरिया को सताता है समंदर का खौफ क्यूँ,
है मामला गहरा मगर एकदम जहीन है.

उसकी मदद को कल से कई हाँथ बढ़े हैं.
कहते हैं उस गरीब की बेटी हसीन है.

उधडे जो घर के रिश्ते कैसे सिले कोई,
फासला दिखता मगर मसला महीन है.

दर्द-ए-जिगर भी मेरे कुछ यूँ बयां हुए,
उनको लगा कि ग़ज़ल ये ताजा तरीन है.

जय सिंह"गगन"

मुन्ना अब स्कूल चलो.



मुन्ना अब स्कूल चलो.

विश्व शांति और दंगा पढ़ने,
क ख ग घ अंगा पढ़ने.
झाडो बस्ता धूल चलो.
मुन्ना अब स्कूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

नए साल की नयी पढ़ाई,
पाठ तुम्हारे बड़े मिलेंगें.
हरदम मास्टर जी कक्षा में,
डंडा लेकर खड़े मिलेंगें.

अब रामायण मियां पढ़ेगा,
च छ जा झ इया पढ़ेगा.
कर लो याद सुधार सिंह को,
छोडो बात फिजूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

बारहखडी ककहरा लेकर,
गिनती और पहाडा पढ़ने.
किसने किसका कुल्लू खींचा,
किसका टूटा नाडा पढ़ने.

पन्ना खोलो खडा मिलेगा,
ट ठ ड ढ ण मिलेगा.
खेल खेल में उल्टी गिनती,
तुम न जाना भूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

कल जो सबक मिला था बच्चू,
उसको आज दिखाना होगा.
कलम खो गयी स्लेट नहीं है,
फिर कुछ नया बहाना होगा.

त थ द ध न कह देगा,
प फ ब भ म कह देगा.
इस झंझट से मुक्ति पाने,
सबको पढ़ो समूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

अच्छी करो पढाई प्यारे,
सबका तुमको प्यार मिलेगा.
हर मुश्किल में साथ तुम्हारे,
य र ल व यार मिलेगा.

हर प्रश्नों के हल को लेकर,
श ष स ह कल को लेकर,
तुम्हें करेगा कूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

कभी परीक्षा फेल न होना,
घर में भी फटकार पड़ेगी.
नक़ल न करना बच्चू समझे,
मास्टर जी की मार पड़ेगी.

क्ष त्र ज्ञ कान न खींचे,
कहीं तुम्हारी जान न खींचे,
भारत की बगिया महकाने,
चाचा जी के फूल चलो.

            मुन्ना अब स्कूल चलो.

                  गगन